आसन, प्रणायाम, ध्यान इत्यादि से रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर शरीर को स्वस्थ व स्फूर्तिवान बनाया जा सकता है। आसनों की श्रृंखला में आज हम जिस आसन की चर्चा कर रहे हैए इसका नाम है ’’मत्सयेन्द्रासन’’। महान योगी मत्सयेन्द्रनाथ अधिकांश समय तक इसी आसन में बैठा करते थे। इस कारण यह आसन मत्स्येन्द्र और अर्धमत्स्येन्द्रासन के नाम से जाना जाता है।
विधिः-
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पैरों को सामने की ओर फैलाकर बैठ जायें।
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बाईं पैर को घुटने से मोड़कर ऐड़ी को दायें नितम्ब के पास लायें।
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दायें पैर को उठा कर बायें घुटने के बाईं तरफ जमा कर रखें। घुटना सीधा वक्षस्थल के पास रहे।
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श्वास छोड़ते हुये बाईं भुजा के ऊपरी भाग से घुटने को दबाते हुये बायें हाथ से दायें पैर को पकड़ लें।
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दायें हाथ को पीछे की तरफ मोड़ते हुये कमर से लपेट दें।
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पाँच श्वास लेने के बाद इसी प्रक्रिया को दूसरी दिशा में करें।
लाभः-
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मधुमेह रोग में विशेष लाभ देता है।
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फेफड़ो को बल मिलता है।
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रीढ की हड्डी को लचीला बनाता है।
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लीवर को पुष्ट करता है।
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नसों की दुर्बलता दूर कर, जंघा व भुजाओं को सशक्त करता है।
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मुत्राशय सम्बन्धी रोग, वीर्य रोग, मासिक धर्म सम्बन्धित विकार के निवारण में सहायक है।
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पाचन क्रिया ठीक करता है।
सावधानियाँः-
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गर्भवती महिलाऐं इस आसन को न करें।
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कमर दर्द या चोट ग्रस्त व्यक्ति इसे न करें।
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रीढ की हड्डी (मेरुदण्ड) व गर्दन सीधी रखें।
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अगर हाथ से पंजा पकड में नही आता तो घबराईये नहीं। निरंतर अभ्यास व प्रयास से ही सफलता मिलेगी।
विशेषः-
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किसी भी आसन को करने से पूर्व योग विशेषज्ञ से परामर्श जरुर करें।
थको नहीं, रुको नहीं, करते रहो अभ्यास। स्वस्थ बने रहने की, तभी बुझेगी प्यास।।