अग्नि दरअसल अलग-अलग प्रकार के एंजाइम्स और पाचन की क्रियाओं को बताने वाली वर्णनात्मक श्रेणियां हैं। अग्नि के 13 प्रकारों में से सबसे महत्वपूर्ण होती है जठराग्नि यानि पाचन की अग्नि। पाचन में केंद्रीय भूमिका निभाने वाली पाचन की अग्नि का सिद्धांत सार्थक भी है क्योंकि यह पाचन की क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और पोषक तरल, दोष, धातु और मल का निर्माण करती है।
यह बहुत जरूरी है कि जठराग्नि का संतुलन बना रहे, बाकी सभी अग्नि इस पर ही निर्भर हैं, साथ ही सभी धातुओं के पोषण के लिए भी यह जरूरी है।किसी बीमारी के विधिवत इलाज से पहले , डॉक्टर अग्नि में आई गड़बड़ी पर ध्यान देकर ही जांच करते हैं, बाद में हर्बल दवाइयों की मदद से उन्हें ठीक करते हैं।
जड़ी बूटियों के प्रभाव से अग्रि की गतिविधियां बढ़ती हैं, उत्तकों के बनने प्रक्रिया तेज़ होती है, मल और विषैले तत्वों को बाहर करने में मदद मिलती है। अग्नि की ये उत्तेजना शरीर के स्रोतों में आ रही रुकावटों और अग्नि के लिए सटीक दवा की पहचान करने के बाद आती है।एक बार जब कोई खास अग्नि उत्तेजित होती है तब वह ज्यादा क्रियाशील हो जाती है और शरीर से गंदगी को निकालने में मदद करती है।
अग्नि की चार अवस्थाएँ:
जब दोषों में गड़बड़ी आती है तब शरीर के अंदरूनी तंत्र और अग्नि प्रभावित होती है। अग्नि की चार अलग-अलग अवस्थाएं शरीर में मौजूद रहती हैं। इन अलग-अलग अवस्थाओं में से तीन तो दोषों के बिगड़ने की वजह से होती हैं, जिनमें वात, पित्त, कफ शामिल हैं और चौथी अवस्था को संतुलित अवस्था माना जाता है।
विषमाग्नि:
यह एक अनियमित और अस्थिर अग्रि की अवस्था है, यह वात के प्रभाव से बढ़ जाती है। इस अग्नि की क्रिया परिवर्तनशील है- इसमें जठराग्नि आमतौर पर भोजन को आसानी से पचा लेती है और बाकी समय में मुश्किल से। इस तरह की अग्नि अक्सर ऐसे लोगों में पाई जाती है जिनमें वात दोष होता है या जिनमें वात बिगड़ा हुआ होता है। विषमाग्नि के लक्षणों की बात करें तो इनमें कब्ज़,पेट में सूजन, पेचिश, पेट में दर्द और गैस, आंत में गुड़गुड़ाहट की आवाज़ शामिल हैं।
तीक्ष्णाग्नि:
इस अग्नि की क्रिया बहुत तेज़ या अवस्था मजबूत होती है, यह पित्त के बिगड़ने की वजह से होती है। यह ऐसे लोगों में देखी जाती है जिनमें पित्त की अधिकता होती है या जिनमें पित्त गड़बड़ होता है। इसमें जठराग्नि बहुत ज्यादा क्रियाशील हो जाती है यह तीक्ष्णाग्नि अवस्था में आ जाती है, और कम समय में बड़ी मात्रा में आहार को पचा सकती है, साथ ही व्यक्ति को लगातार भूख लगती रहती है।
अग्नि की इस अवस्था के लक्षणों में मुंह में सूखापन, पेट में जलन और अत्यधिक मात्रा में प्यास लगना शामिल है।
मंदाग्नि:
यह अग्नि कम से कम दरों पर काम करती है, जो अक्सर ऐसे लोगों में देखी जाती है जिनमें कफ दोष बिगड़ा हुआ होता है। इसमें जठराग्नि कम मात्रा में भी भोजन को नहीं पचा पाती है। इसमें मितली, उल्टी, पेट में भारीपन,आलस, खांसी, अधिक मात्रा में लार बनना जैसे लक्षण दिखते हैं।
समाग्नि:
यह अग्नि की समान्य और स्थिर अवस्था है, यह संकेत है शरीर के तीनों दोषों के संतुलन का। जठराग्नि आसानी से सामान्य आहार को पचाकर उसमें से पोषण निकाल लेती है। सभी धातुओं, कोशिकाओं और अंगों को संपूर्ण पोषण मिलता है और अच्छी सेहत बनी रहती है।
पाचन की प्रक्रिया:
मुंह में जीभ से भोजन का स्वाद मिलता है और चबाया जाता है दांतों से। लार ग्रंथियां भोजन को पचाने के लिए जरूरी नमी उपलब्ध कराती हैं।यह प्रक्रिया प्राण वात की वजह से होती है। जब पेट में भोजन पहुंचता है तब यह क्लेदक कफ की वजह से गुथे हुए आटे जैसा हो जाता है, और तब यह जठराग्नि यानि पाचन की अग्नि के सामने आता है
जठराग्नि उस भोजन को गर्म करती है वो भी पाचक पित्त की मदद से, जिससे पोषक तरल बनता है जिसे आहार रस कहते हैं। पाचन प्रक्रिया में पित्त का एक महत्वपूर्ण रोल होता है, यह गर्मी, ऊर्जा, अम्लीय क्रिया और अन्य रूपांतरण की प्रक्रियाएं जो पेट या लिवर में होती हैं उनके लिए जिम्मेदार होता है।
पोषक प्लाज्मा सात धातुओं को बनाते हैं और उनका पोषण करते हैं। पोषक प्लाज्मा यानि आहार रस समान वात की मदद से धातुओं तक पहुंचते हैं।भोजन का ऐसा हिस्सा जिसमें कोई पोषण नहीं होता उसे मल या गंदगी कहते हैं। मल को अपना वात मलाशय और रेक्टम तक ले जाता है ताकि वो शरीर से बाहर निकल सके।
अगर जठराग्नि कमजोर या दोषपूर्ण है तो यह भोजन को सही तरीके से नहीं पचा सकती। आहार रस बहुत ही खराब गुणवत्ता का और कम मात्रा में बनेगा। इसलिए धातु और ओज को सही पोषण नहीं मिल सकेगा जिससे वो असंतुलित हो जाएंगे। इसके साथ साथ पाचन से जुड़ी बाकी सारी प्रक्रियाएँ और गतिविधियां जो जठराग्नि पर पोषण के लिए निर्भर होती है वो प्रभावहीन हो जाएंगी।
अगर जठराग्नि संतुलित तरीके से काम करेगी तो व्यक्ति को अच्छी सेहत मिलेगी और वह जिंदगी मजे से गुजारेगा। अगर पाचन की प्रक्रिया असंतुलित होती है तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है और बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है,कमजोर जठराग्नि की वजह से धातु, मल और दोषों में असंतुलन आ जाता है।अगर ये पूरी तरीके से खत्म हो जाए तो इसका परिणाम है मौत।
आयुर्वेद की आठ शाखाओं में से एक है काया चिकित्सा। चरक संहिता में काया को अग्नि का पर्यायवाची कहा गया है और चिकित्सा का मतलब है उपचार। अंदरूनी दवाइयां या काया चिकित्सा दरअसल पाचन की अग्नि के उपचार हैं। यह अच्छी सेहत को बनाए रखने और रोग की प्रक्रिया पर पाचन के प्रभाव में जठराग्नि की केंद्रीय भूमिका को इंगित करता है।
बीमार लोगों का इलाज करते समय, एक चालाकआयुर्वेदिक चिकित्सक आमतौर पर जठराग्नि की ताकत को बेहतर बनाने के लिए कुछ हर्बल दवाएं दे देते हैं, भले ही कमजोर या गड़बड़ पाचन प्रक्रिया से संबंधित कोई लक्षण न दिख रहे हों। अगर जठारग्नि किसी भी तरह से खराब है, तो रोगी बताए गए उपायों को पचाने और अवशोषित करने में भी सक्षम नहीं हो सकेगा। तो जठराग्नि दोनों ही कारणों से बीमारी से बचाव और उसके इलाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।