आयुर्वेद में कई प्रकार के बाहृय स्वेदन (massages) बताये गए हैं। ये सभी बहुत स्फूर्ति दायक व शरीर की धातुओं को मजबूत करते हैं। इनमें एक प्रमुख बाह्य स्वेदन शष्ठिकशाली पिण्ड स्वेद है। यह धातुओं का पोषण कर उनका पुनर्निमाण करता है। इससे स्नायु, संधियाँ, मांसपेशियाँ एवं हड्डियां मजबूत होती है और उनसे जुड़ी व्याधियाँ भी दूर होती है।
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शाली का संस्कृत में मतलब, चावल होता है। 60 दिन में खेत में उगने वाली चावल की जाति को शष्ठिकशाली कहते हैं। इसके अलावा, इस स्वेदन प्रक्रिया में बलामूल, दूध एवं कपड़ा आदि का इस्तेमाल किया जाता है। प्रारंभिक मसाज के लिए तेल भी जरुरी होता है। चावल को बलाक्वाथ एवं दूध के साथ पकाकर उससे मध्यम आकार के पोटली बनाई जाते है और इसी से मसाज की जाती है।
यह कैसे काम करता है?
षष्ठिकशाली, बला एवं दूध तीनों ही पोषक तत्वों से परिपूर्ण है। मुख्यतः ये वात-पित्तशामक और धातु बल बढ़ाने वाले हैं। संपर्क में आने से इनमें मौजूद औषधि तत्त्व त्वचा से शरीर में प्रवेश करते हैं तथा रसादि सातों धातुओं का पोषण करते हैं। स्नायु एवं वात नाडि़यों के कार्य प्रणाली को सुधारते हैं। इससे धातुओं में बढ़ा हुआ वात कम होता है और धातुओं में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। इस मसाज में इस्तेमाल किया जाने वाला तेल भी इसी गुणधर्मों से युक्त होता है।
पोटली स्वेद की प्रक्रिया
रोगी के पूरे शरीर पर गर्म तेल से मसाज की जाती है। एक बड़े बर्तन में बलाक्वाथ एवं दूध को एकत्रित करके, उस बर्तन को अग्नि पर रखा जाता है। गर्म हाते ही उसमें चार पोटली रख दी जाती हैं। कुछ देर बाद दो पोटलियां बाहर निकाल कर उनसे रोगी के शरीर पर मसाज की जाती है। पोटली के ठंडे होने पर वापस उबलते दूध में रखा जाता है और अन्य दो पोटली को लेकर मसाज जारी रखते हैं। ऐसे ही पोटलियों को अदल-बदल कर लगभग एवं घण्टे तक मसाज की जाती है। अंत में रोगी के शरीर पर चिपका पेस्ट हटाकर गर्म तेल लगा दिया जाता है।
सावधानियां
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मसाज करते हुए रोगी को ठण्ड न लगे इस पर ध्यान दें।
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मसाज के बीच-बीच में एवं अंततः गर्म तेल शरीर पर लगायें।
लाभः
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षष्ठिकशाली पोटली स्वेद वातविकारों को ठीक करता है।
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संधिवात, धातुक्षयजन्य व्याधि, अर्धांगवात, स्पाइनल कॉर्ड (spinal cord) के विकार, नर्वज से उत्पन्न वेदनाए आदि में ये मसाज उपयुक्त होता है।
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संधियों के विकार, साइटिका एवं कृशता से पीडि़त मरीजों के लिए उपयुक्त होता है।
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इससे जरा-व्याधियाँ दूर रहती हैं और धातुओं का पुनर्निर्माण होता है।