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उत्तरवस्ति

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बात चाहें हो पुरातन काल की हो या आधुनिक विज्ञान वाले युग की, सृष्टि को चलाने के लिए मानव उत्पत्ति अनिवार्य है। ऐसी प्रजनन क्रिया के लिए दाम्पत्य जीवन में स्वस्थ व सक्रिय यौन संबंध ज़रूरी है। यौन जीवन की इसी खुशहाली के लिए पंचकर्मा में उत्तरवस्ति नामक ट्रीटमेंट है।

पंचकर्म का अर्थ पांच विभिन्न चिकित्सकीय प्रक्रियाओं का सम्मिश्रण है। पंचकर्म का प्रयोग कर शरीर को बीमारियों एवं कुपोषण द्वारा छोड़े गए विषैले पदार्थों से निर्मल करने के लिए होता है। पंचकर्म में इन 5 चिकित्सा प्रणालियों वमन, विरेचन, नस्य, रक्तमोक्षण व वस्ति का मेल है, जिसमें उत्तरवस्ति वस्ति का ही भाग है।

क्या है उत्तरवस्ति:

उत्तरवस्ति को दो और तरीकों से समझाया जा सकता है- पहला तरीका यह है कि प्रजनन व मूत्रवह संस्थान से संबंधित कई विकारों में उत्तरवस्ति पंचकर्म चिकित्सा का एक प्रभावी व महत्वपूर्ण हिस्सा है जो स्त्री व पुरूषों दोनों में ही प्रयोग की जाती है। दूसरा यह है कि ये श्रेष्ठ गुणों के साथ अच्छा परिणाम देता है। इसलिए एक व्यवहारिक उद्देश्य के लिए हम उत्तरवस्ति को निम्नलिखित प्रकार से विभाजित कर सकते हैं।

स्त्री रोग:

  • डिम्बवाहिनी में अवरोध

  • गर्भाशय में फाइब्रॉइड

  • एण्डोमेट्रियोसिस

  • इन्फर्टिलिटी

  • असामान्य रक्त स्त्राव

पुरूष रोग:

  • मूत्राशय के विकार

  • प्रोस्टेट का बढ़ना

  • मूत्रवाहिनी में अवरोध

  • शुक्र धातु की क्षीणता

  • मूत्रमार्ग का संक्रमण

प्रक्रिया:

उत्तरवस्ति एक आयुर्वेदिक चिकित्सा है जिसमें औषधीय तेल, घी को सीरिंज के साथ मूत्रमार्ग में प्रविष्ट कराया जाता है। उत्तरवस्ति कम दर्द के साथ बिना सर्जरी की प्रक्रिया है इसलिए इसमें एनसथीसिया की कोई आवश्यकता नहीं होती। यह प्रक्रिया सभी सावधानियों के साथ एक विशेषज्ञ के द्वारा की जाती है और इससे मूत्रमार्ग को संक्रमण से बचाया जाता है।

उत्तरवस्ति के दौरान बरती जाने वाली सावधानियां:

  • ज्यादा से ज्यादा पानी पीना चाहिए जिससे यूरिन पानी की तरफ साफ हो।

  • यूरिन को कभी भी टालना नहीं चाहिए और ना ही जबरदस्ती करनी चाहिए।

  • उत्तरवस्ति के दौरान या बाद में कुछ दिनों तक शारीरिक संबंध बनाने से बचना चाहिए।

  • आहार हल्का, ताजा, सुपाच्य जैसे तरल या दलिया-खिचड़ी इत्यादि लेना चाहिए।

अवधि:

उत्तरवस्ति की प्रक्रिया को एक सप्ताह में 2-3 बार किया जाता है। इन दिनों में दवा की मात्रा को धीरे-धीरे बढ़ा दिया जाता है। दस दिन का अंतराल रखने के बाद इस ट्रीटमेंट को दोहराया जा सकता है। इस आयुर्वेदिक प्रक्रिया में दवा और ट्रीटमेंट की अवधि को मरीज व रोग की हालत के अनुसार निर्धारित किया जाता है।

परिणाम:

उत्तरवस्ति के परिणाम को क्लीनिकली देखा जा सकता है। इलाज से पहले व इलाज के बाद व्यक्ति अपनी हालत में तुलना कर खुद अंतर महसूस कर सकता है। इसका असर उपचार के दौरान ही प्रतीत होने लग जाता है।

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